हां मै नैपकीन हूँ ...


आज 8 मार्च है यानि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस. अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरूआत 1900 के आरंभ में हुई थी. वर्ष 1908 में न्यूयार्क की एक कपड़ा मिल में काम करने वाली करीब 15 हजार महिलाओं ने काम के घंटे कम करने, बेहतर तनख्वाह और वोट का अधिकार देने के लिए प्रदर्शन किया था. इसी क्रम में 1909 में अमेरिका की ही सोशलिस्ट पार्टी ने पहली बार ”नेशनल वुमन-डे” मनाया था. वर्ष 1910 में डेनमार्क के कोपेनहेगन में कामकाजी महिलाओं की अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस हुई जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस मनाने का फैसला किया गया और 1911 में पहली बार 19 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया. इसे सशक्तिकरण का रूप देने हेतु ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में लाखों महिलाओं ने रैलियों में हिस्सा लिया. बाद में वर्ष 1913 में महिला दिवस की तारीख 8 मार्च कर दी गई. तब से हर 8 मार्च को विश्व भर में महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है.
इस साल महिला दिवस सेलीब्रेट करते हुए हमें सौ साल पूरे हो गए हैं. जगह-जगह सेमीनार आयोजित करके इन सौ सालों में महिलाओं की स्थिति में आए अंतर को लेकर चिंतन-मनन किया जा रहा है. बहुत समय से इस सब्जेक्ट पर लिखने का मन था, लेकिन अब कहीं जाकर मौका मिला है भड़ास निकालने का. महिला दिवस पर बड़े-बड़े होटलों में होने वाले इन आयोजनों में भले ही आपको कुछ और दिखे न दिखे, लेकिन महिला सशक्कितकरण पर लंबे-ऊबाऊ भाषणों के साथ ही ‘नारी’ जीवन के अलग-अलग रंग देखने को जरूर मिल जाएंगे. यहां पर आने वाले अधिकांश पुरुषों के लिए तो यह प्रोग्राम्स राजनीतिक पहुंच बढ़ाने या फिर आंखें सेंकने का मजेदार अढ्डा होता ही है, लेकिन यहां पहुंचने वाली महिला सॉरी वूमन की बात ही अलग होती है. आंटी टाइप इन महिलाओं को खुद को आंटी कहलवाना बिल्कुल पसंद नहीं है. इन दिनों मार्केट में कौन से लेटेस्ट ब्रांड के कपड़े और सैंडिल्स ट्रैंड में है, यह आपको इन्हें देखकर या पांच मिनट में बात करने के बाद खुद ही पता चल जाएगा. हर समय एसी कार और घर में रहने वाली यह महिलाएं धूप में हाड़-तोड़ मेहनत करने वाली महिला के दर्द को किस तरह महसूस करेंगी, यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया. इनमें से अधिकांशत: वह महिलाएं शामिल होती हैं जो हमेशा अखबारों में अपनी फोटो छपवाने के लिए बेताब रहती हैं. यही नहीं प्रेस के कैमरों के सामने गहरी लिप्सिस्टिक से सजे होंठों और अपनी मंहगी साड़ी की नुमाईश करने के लिए यह महिलाएं अक्सर होड़ में रहती हैं. ऐसी महिलाओं से भी मेरा पाला पड़ा है, जिनकी फोटो अगर अखबार में नहीं छप पाती तो वह संपादक से शिकायत करने की धमकी तक दे डालती हैं. इन प्रोग्राम्स में पार्टिशिपेट करने के अलावा यह महिलाएं अक्सर किट्टी पार्टियों में नजर आती हैं. अपने पति की कमाई को सोशल एक्टिविटीज के नाम पर किट्टी और दूसरे इंटरटेनमेंट पर खर्च करना इनकी खास हॉबी है. मंच पर यह अक्सर कहती हैं कि पति हमें नैपकिन की तरह समझता है, जिसे जब चाहे यूज किया और फेंक दिया, लेकिन यह ये बताना भूल जाती हैं कि इन्हें नैपकिन बनाया किसने है. अपनी एनर्जी पॉजिटिव चीजों में खर्च करने की बजाय यह अपने झूठे दिखावे में खर्च करने में विश्वास करती हैं. कई ऐसे भी मामले रहे हैं जहां महिला अधिकारों की समर्थक इन महिलाओं ने गरीब पीडि़ता का ‘यूज’ खुद की पॉप्युलैरिटी के लिए किया है. ताकि इस सेवा का सीधा क्रेडिट इनके खाते में जाए और यह अपने एनजीओ के लिये मोटा पैसा भी कूट सकें. महिला उत्थान के नाम पर होने वाले इन ढकोसलों को देखकर हमें शर्म आती है. केवल किसी पीडि़त गरीब महिला के साथ फोटो खिंचवा लेने से महिला का उत्थान नहीं होने वाला. ऐसा नहीं है कि सारी महिलाएं ही ऐसी हैं, लेकिन क्योंकि आज दिखावे का समय है, ऐसे में अक्सर वह महिलाएं कहीं पीछे छूट जाती हैं जो वास्तव में सम्मान की हकदार हैं और अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए कोशिश कर रही हैं

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